The participants & their readings at KavitaKAFE
At the heart of KavitaKAFE’s Healing Verses project lies a diverse ensemble of poets, storytellers, and musicians whose voices carry the warmth of empathy into spaces of fragility and healing. Through their readings, they don’t merely recite poems — they enter into a dialogue with places and people often kept at the margins: old-age homes, hospitals, rehabilitation centres, and schools for the visually impaired.
Each participant brings a unique sensibility: some offer light sher-o-shayari, blending familiar rhythms and vernacular idioms; others present original work steeped in hope, resilience, and delicate reflection. In sessions where listeners may struggle with long verses, selected pieces are trimmed, interwoven with live music, or paired with known film lyrics to bridge the gap between performer and audience.
Musicians on guitar, flute, djembe, and harmonica accompany these readings, creating a textured landscape where voice and sound support each other, where silence is also an instrument. Over the course of sessions, participants respond to cues from caregivers, fine-tuning their selections so the act of reading becomes an act of attentive giving. What emerges is a gentle performance: voices reaching beyond aesthetics into the realm of comfort, care, and collective affirmation.

The Readings
By Gayatri
Presented at Poona Blind School
एक परिंदा, आझादी की तवक्कुल में
बैचैन बैठा सा था
कोई ख्वाब था उसका,
जो पर अभी तोला ना था
इन्तेज़ार जो हुआ खत्म
वो पल आ ही गया
तोडके बंधन सभी,
वो जिंदगी से मिलने चला
आंखे खोल देखा जो उसने
सामने एक साया सा था
रोशनी को ढंके हुए
अंधेरा घना छाया सा था
तूफ़ान था वो या थी वो आँधी
सपना जैसे चूर हुआ
माँ की गोद में लिपटा हुआ वो
परिंदा टूटा सा था
पर उसके तडप रहे थे
मजबूती समेटने लगे हुए थे
अखिर ख्वाब उसका
आसमानों को छूने का था
एक सवेरा फिर ऐसा भी आया
धुंधली थी रहे यकीनन, थे अंधेरे भी घने,
डर था दिल में, आंखें थी नम
पर बादलों को वो छूता रहा
फैलाये अपने पंख वो बेझिझक उड़ता रहा
रुक गयी धरा भी पलभर
देखकर उसकी आभा
और सूरज भी थम सा गया
अलग सा था वो हमेशा
अब अपने जैसे दूसरों को लेकर
बसाया अपना एक काफ़िला
डर के रुक जाए कोई गर
हिम्मत से उन्हें कहता चला
लडखडाए जो कदम कभी
हौसला ना तू गवा
साथ है उसके खुदा जिसको कोई और ना हो आसरा
धुंधली सी हो राहें कभी तो अपने परों पर तू यकीन रख
हो बुलंद गर हौसला तो आसमा झुक जाएगा
सर उठाकर बढ़ा कदम तू
उस आसमा का सरताज तू कहलाएगा
तेरे परो की जान बनकर वो आसमा खुद आएगा
वो आसमा खुद आएगा
———
By Anjali Chimurkar
At Poona Blind School
हसून घ्यावे... जगून घ्यावे...
सुंदर जीवन तुम्हां मिळाले
जगून घ्यावे जगून घ्यावे
चार दिसांच्या जीवनात या
हसून घ्यावे हसून घ्यावे..
सगळ्यांवर समान प्रेम करावे
भेद कशाचे मनी नसावे
मनामधील क्लेषांना साऱ्या
विसरुन जावे विसरुन जावे..
चार दिसांच्या जीवनात या
हसून घ्यावे हसून घ्यावे..
असेल काही तुमच्यापाशी
त्याचे तुम्हा गर्व नसावे
शिकण्याजोगे मिळेल काही
शिकून घ्यावे शिकून घ्यावे..
चार दिसांच्या जीवनात या
हसून घ्यावे हसून घ्यावे..
आशा ठेवूनी स्वप्न बघावे
रंग सुगंधही त्यात भरावे,
ध्यास धरुनी या स्वप्नांना
पूर्ण करावे पूर्ण करावे..
चार दिसांच्या जीवनात या
हसून घ्यावे हसून घ्यावे..
हृदयामधील कप्यामध्ये
आठवणींचे गाव असावे
त्यातील सुंदर आठवणींना
स्मरून घ्यावे स्मरून घ्यावे..
चार दिसांच्या जीवनात या
हसून घ्यावे हसून घ्यावे..
चार दिसांच्या जीवनात या
हसून घ्यावे हसून घ्यावे..
—————-
By Md Azad Hind
At QMTI
वतन पे जान कि बाज़ी लगा रहा है कोई
हमारे वास्ते खूं में नहा रहा है कोई
हमारी आँख के आंसू अभी न सूखे थे
लिपट के फिर से तिरंगे में आ रहा है कोई
हर एक बार कि तरहा न भूल जाना इसे
हमारे घर को वतन को जला रहा है कोई
ये उजड़ी मांग का सिंदूर हमसे पूछता है
क्यों कातिलों में अभी मुस्कुरा रहा है कोई?
लगा के नाम ए मुहम्मद वो अपने लश्कर में
नबी कि दीन कि अज़मत घटा रहा है कोई
ये देख कर मेरी आँखें छलक गई आज़ाद
वो टुकड़े जिस्म के कैसे उठा रहा है कोई
©️Md Azad Hind
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By Tushar Gadekar
At QMTI
*अब यहाँ थूकना मना हैं*
कविता शुरू करनेसे पहले मैंने खाली रखी है,
पन्नेकी, शुरवात की चार लाइने
जिसमे तुम लिख सकती हो गालियाँ
इस पितृसत्ता समाज केलिए
तुम्हे इजाजत है,
तुम लिखना
बाप भाई के नामकी गालियाँ ,
चाहे तो दादा परदादा के नामकी भी
और फिर शुरू करना तुम्हारी पसंदीदा कविता ,
जिनके शीर्षक होंगे
चूल्हेकी घुटन , जले हुए हाथ, नामर्दोकि बस्ती या फिर योनि की आत्मकथा
और एक भी शब्द मत काटना उस कवितासे
चाहे दुनियाको वो कितनीभी भद्दी, असभ्य, बागी या विद्रोही लगे
तुम लिखते रहना तबतक,
जबतक तुम्हारा खून कलममें स्याही बनके उतर न जाये
जबतक तुम्हारी शब्दोंकी चींखोंसे उनके कानोंमें सन्नाटा गूंजने ना लगे,
जबतक शहर की हर दीवारपे लाल अक्षरोमे कविता न हो
तबतक तुम लिखते रहना
और लिखना कविताके निचे बड़े बड़े अक्षरोंमें तुम्हारा नाम
और नाम के साथ येभी लिखना के अब यहा थूकना मना है
——-
By Surbhi Jain
At QMTI
वो चमक-धमक से लबरेज़ अभिनेता नहीं, फिर भी महानायक है |
बड़े-बड़े वादे करने वाला नेता नहीं, वर्दी की शपथ निभाने वाला वीर है |
वो पिच पर गेंद और बल्ले से नहीं, सरहद पर गोली और बारूद से खेलता है |
जिसने हमारे सुकून के लिए अपने जीवन से आराम को निकाल फेंका है |
जिसका नाम आज भी अनसुना और चेहरा अब भी अनदेखा है |
एक सिपाही की जिंदगी को आज मैंने करीब से देखा है ||
जब-जब देश की सीमा पर दुश्मन का साया मंडराया है |
जमीन के एक टुकड़े मात्र पर विजय-ध्वज फहराने के लिए उसने अपना लहू बहाया है |
अनगिनत माँ-बाप ने मातृभूमि की खातिर अपने बेटो की लाश को अपनी आँखों से देखा है |
अनगिनत सुहागनों ने माथे का सिन्दूर पोंछा है, अनगिनत नौनिहालों ने पिता का साया खोया है |
अरे देश का कोई मीडिया नहीं, जिनके पास इन हताहतों का लेखा-जोखा है |
एक सिपाही की जिंदगी को आज मैंने करीब से देखा है ||
सिर्फ दुश्मन फौज से लड़ना उसकी नियति नहीं |
वो लड़ता है आतंकी से, नक्सली से, देश-द्रोही से, पत्थरबाज से |
वो लड़ता है ठण्ड से, बर्फ़बारी से ,गर्मी से, धूप से, बरसात से |
वो लड़ता है अपनत्व की कमी से और अपनों की याद से |
देश के लिए मिट जाने का ही सपना उसने देखा है |
एक सिपाही की जिंदगी को आज मैंने करीब से देखा है ||
जब प्रकृति समय-समय पर अपना मनोरम रूप दिखाती है |
जब सर्दी अपनी अकड़ कम कर के थोड़ी खुशनुमा हो जाती है |
जब श्वेत बर्फ पिघल कर झरने से कल-कल बहती हुई आती है |
तब उसे अपने हमसफ़र की याद तो जरूर आती होगी |
कुछ कहने, कुछ सुनने की कसक दिल को सताती होगी |
लेकिन उस की हथेली में कहाँ इश्क़ और आशिकी की रेखा है |
एक सिपाही की जिंदगी को आज मैंने करीब से देखा है ||
ना जाने कितनी इच्छाओं को वो, दिल में दबा देता होगा |
ना जाने कितनी बार वो, आधे पेट ही सो जाता होगा |
ना जाने कितने मौकों पर वो, घर नहीं पहुँच पाता होगा |
ना जाने कितनी चोटों को वो, बिना उफ़ किये सह जाता होगा |
संघर्षों के साथ उसका रिश्ता, कितना अनोखा है |
एक सिपाही की जिंदगी को आज मैंने करीब से देखा है ||
दुःख होता है जब वो बुरी तरह घायल होता है |
दुःख होता है जब वो बेमौत मारा जाता है |
दुःख होता है जब वो अपने पीछे बिलखता परिवार छोड़ जाता है |
दुख होता है जब उसके परिवार को अपना हक़ भीख की तरह मांगना पड़ता है |
उस की शहादत के आगे हर एक बलिदान फीका है |
एक सिपाही की जिंदगी को आज मैंने करीब से देखा है ||
——
By Keshava Shukla
At Aaji Care
कुत्ते की सैर
कुत्ता लाये थे हम, करने टेंशन दूर
सोचा साथ में , हम टहलेंगे हुज़ूर
पर हाय किस्मत ,
अजब वक़्त मेरे ऑफिस की कॉल थी
बोला कुत्ता 'टहलाओ '
हमने कह रहे "कैन यू हिअर मी ?"
वह रहने लगा बड़ा उदास
हमे भी न लगा कुछ ख़ास
अब हालात ऐसे है ,
क्या कहें ओ यारों,
उसे घुमाने के लिए,
रखा है एक को प्यारों।
हम देखे उसे खिड़की से, चले स्टेटस काल ,
और वो दौड़े बागों में, हम सुनते रहें बवाल ।
—————
By Sachin Sharma
At Aaji Care
वो हाथ.
कुछ तो जादू है उन बूढ़े हाथो में, जो आज भी उठते हैं आशीर्वाद देने को ,
कभी सहलाते थे मेरे बचपन को, तो कभी संभालते मेरे लड़कपन को ,
फिर आगे कर मुझे, सिखाया इस दुनिया के तौर तरीक़ों को ,
अपने घोंसले की परवाह न किये, बसाया मेरे नए घरोंदे को ,
मैं तो रम चला ख़ुद में, भूल उस हाथ को , दुलार को,
की आस लगाए बैठा है कोई, पकड़े उस सूखी डाल को,
और आज जब आया होश मुझे, मैं दौड़ा पकड़ने उस हाथ को ,
दूर करने वो सहारे की छड़ी, और देने अपने साथ को ,
उठे फ़िर काँपते हुए , उम्र के इस पड़ाव में वो ,
निहारते उन नम आँखों से , देने आशीष मुझको वो,
वाक़ई जादू है उन बूढ़े हाथों में, समझ न पाया इस बात को,
कि आज भी उठते है देने मुझे, दिल से इक आशीर्वाद को .।
-Sachin'स
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By Surbhi Jain
At Aaji Care
मैं अक्सर, यादों के गलियारों में गुम हो जाती हूँ |
ये यादें, मुझे जकड़ लेती हैं, मेरे पैरों को पकड़ लेती हैं |
कहती हैं: कितनी जल्दी में रहती हो, कुछ देर तो रुक कर जाओ |
माना कि अब मैं बीते कल की बात हो गयी हूँ,
लेकिन अब आयी हो, तो कुछ वक़्त मेरे साथ भी बिताओ |
और मैं….पिघल जाती हूँ |
मैं कहती हूँ,कि बस एक पल ठहरो,,मैं अभी आती हूँ |
वो रूठ के कहती है, कि बहन अब कहाँ जाती हो |
मैं कहती हूँ: इतने समय बाद मिले हैं, मैं जरा चाय का बंदोबस्त तो कर लूँ |
खाली बैठे समय ज़ाया हो जायेगा, जरा मैं खुद को कहीं व्यस्त कर लूँ |
फिर कभी हेडफोन लगाकर,
कभी क़िताबों में मुँह छुपाकर |
कभी अलमारी साफ़ करने का बहाना बनाते हुए |
कभी सबके लिए अच्छा सा खाना बनाते हुए |
कभी बिखरे हुए घर को समेटते हुए |
कभी आँखे मूँद कर यूँ ही लेटते हुए |
कभी चाय की चुस्की के साथ,
बैठी-बैठी मटर छील लेती हूँ, तो कभी हरी सब्जिओं के पत्ते तोड़ लेती हूँ |
और ये सब करते हुए मैं खुद को वापस उसी गलियारे में मोड़ लेती हूँ |
और ये यादें मुझे प्यार से बिठा लेती हैं |
अपनी बातों में बहलाती हैं,पुराने किस्से याद दिलातीं हैं |
कभी ये इतनी चुलबुली-चंचल होती हैं, कि मन को गुदगुदा देती हैं |
कभी ये इतनी भावुक और संजीदा होती हैं, की आँखों को भिगो देती हैं |
कभी ये इतनी सुखद और हसीन होती हैं, कि सोचती हूँ कि काश मैं इन्हें फिर से जी पाती तो कितना अच्छा होता |
कभी ये इतनी कड़वी भी होती हैं कि लगता है ना ही आतीं तो अच्छा होता |
हम, सब याद करते हैं |
वो पुराने लोग, वो पुराना घर-बार, वो संस्कृति में रँगे तीज-त्यौहार |
पापा का प्यार,मम्मी की फटकार,
भाई के हाथ की मार, दादी का दुलार |
दादी-मम्मी के हाथ के मुरब्बे और अचार |
कभी बचपन के गुड्डे और गुड़िया याद आ जाती है |
कभी मेरे दादाजी जो मुझे रोज दिया करते थे, वो काजू-किशमिश की पुड़िया याद आ जाती है |
ताई-चाची-आंटियां सर्दी की दोपहर में साथ बैठ जाती थीं |
ज्यादा पर्दा नहीं था, हर कोई एक-दुसरे को अपना सुख-दुःख बताता था |
किसी एक बच्चे के बढ़िया नंबर आने पर, पूरा मोहल्ला खुशियां मनाता था |
ज्यादा ख्वाहिशें थी ही नहीं, बहुत छोटे-छोटे सपने थे |
कितना सुन्दर था हमारा सादा जीवन, जहाँ पराये भी अपने थे |
हम, सब याद करते हैं |
इम्तिहान खत्म होने का,कितनी बेसब्री से इंतज़ार होता था |
क्यूंकि उसके ठीक बाद, “गर्मी की छुट्टी ” का त्यौहार होता था |
और फिर वो सुकून भरी कूलर की ठंडी हवा,आम,खरबूजे और ठंडाई |
नानी का घर, चेस, कैरम, कबड्डी और छुपन-छुपाई |
और ज्यादा देर तक धूप में बाहर खेलने पर, मम्मी से मिलने वाली कुटाई |
हम, सब याद करते हैं |
फिर छुट्टियां खत्म होने का सोचकर ही, मन उदास होता था |
पर स्कूल खुलने पर, एक नयी शुरुआत का अहसास होता था |
कॉमिक्स और वॉकमैन को अलविदा कहकर नयी किताबें खरीदने जाते थे |
फिर पापा, बैठकर उन किताबों पर बढ़िया सी जिल्द चढ़ाते थे |
मोगली और बार्बी वाली नेम-चिट लगाकर, हम क्या खूब इतराते थे |
फिर बचपन खत्म हुआ, तो सहेलियाँ ज्यादा प्यारी लगने लगी |
कॉलेज गए तो वहां की दुनिया, बड़ी लुभावनी और न्यारी लगने लगी |
पढाई-गपशप और बेफिक्री में पूरा दिन यूँ ही बीत जाता था |
बेवकूफियाँ करने में भी बड़ा अलग सा मजा आता था |
कॉलेज-हॉस्टल के यादगार किस्से कभी ख़तम ही नहीं होते |
मैं इन यादों से कहती हूँ कि काश सब कुछ वहीँ थम जाता, हम कभी बड़े हुए ही ना होते |
तो ये यादें मुझ से कहती हैं, कि बड़ा होना इतना भी बुरा नहीं |
कितना कुछ जिया है तुमने, इस जीवन ने तुम्हे कितनी यादें दी, कितने सारे पल सुहाने दिए |
तो मैंने कहा, लेकिन लोगों ने कड़वाहट भी बहुत दी,और उलाहने भी तो दिए |
वो मुस्कुरा कर बोली : यही सब झेल कर इंसान मज़बूत और मोटी-चमड़ी वाला बनता है |
शुक्रगुजार रहो उनका भी, जिन्होंने तुम्हे जी भर के ताने दिए |
ये यादें, मुझे कितना कुछ याद दिलाती हैं |
ये मुझे जिंदगी के उतार-चढ़ाव याद दिलाती हैं |
कहाँ से शुरू किया था और आज कहाँ खड़ी हूँ, के बीच का सफर याद दिलाती हैं |
कभी नादानी में की हुयी, गलतियाँ याद दिलाती हैं |
कभी समझदारी से लिए हुए फैसले याद दिलाती हैं |
जो भी, जिंदगी के किसी पड़ाव पर मुझ से टकराया, वो हर इंसान याद दिलाती हैं |
और जब उन लोगों को याद कर के दिल भर आता है, जो आज हमारे साथ नहीं हैं |
तो ये मुझसे कहती हैं कि – जो दुनिया में हैं, उन्ही को याद कर लिया करो |
वो तुम्हारे लिए क्या मायने रखते हैं, ये बताने के लिए कभी-कभी उनसे बात कर लिया करो |
और कुछ इस तरह मैं यादों के गलियारों में घूमती-फिरती, भावनाओं के समंदर में डूबती-उबरती हुई वापस आ जाती हूँ अपने वर्त्तमान में |
मैं इन यादों से वादा कर के आती हूँ कि मैं फिर आऊँगी, हम फिर बैठेंगे, फिर कुछ याद करेंगे |
जब तक हम जीते हैं, नयी यादें बुनते हैं, उन्हें फिर से याद करते हैं |
और हमारे जाने के बाद रह जाती हैं, यही यादें, जिन्हे हमारे बाद हमारे अपने जीते हैं |
और इस तरह हम इस दुनिया में तो नहीं, लेकिन इन किस्सों में, इन यादों में, हमेशा आबाद रहते हैं|
और हमें जिन्दा रखती है तो सिर्फ यही यादें |
beautifully compiled, यादों के गलियारों में is one of my favourites
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